आज पुरी दुनिया कोरोना के चपेट में आ चुका है। भारत में अब तक 2 करोड़ नौकरीयां चली गई है और अगले एक महीने में 30 करोड़ नौकरीयां जाने की संभावना बतायी जा रही है। एक तरफ बड़ी कंपनियों का काम ठप है तो दुसरी तरफ छोटे उद्योग जैसे होटल , शैलून इत्यादि भी बंद पड़े है। कुल मिलाकर मध्यम वर्गीय लोग ही सबसे ज्यादा बेरोजगारी की मार झेल रहें है।
कुछ लोग तो अपने बचत saving से काम चला रहें है परंतु बहुत से लोग जिसका काम हर रोज कमाने और खाने का था वे लोग बेहद चिंतित है और उनकी चिंता जायज भी है । कुछ राज्य सरकारें मनरेगा में कुछ मजदुरों को काम देकर वाहवाही लूटने का असफल प्रयास कर रहें हैं तो कहीं कोई सरकार कोरोना पैकेज की घोषणा करके यह दिखाने का प्रयत्न कर रहें हैं की उन्होनें अपने जिम्मेदारी का निर्वहन कर लिया।
यहां एतराज हो सकता है की लोग सरकारों के प्रयासों को सराहने के बजाय उन्हें कोसते क्यों है???
तो इसका जवाब साफ है की क्या इन सीमित प्रयासों से हम कोरोना की मार झेल रहे अन्य लोगों के साथ न्याय कर रहें हैं?? बिल्कुल नहीं। तो फिर ये लोग प्रश्न तो पुछेंगें ही , जीवन का अधिकार जो संविधान के अपने सभी नागरीकों को दे रखा है (अनुच्छेद 21)।
क्या आज कोई जानने का प्रयास कर रहा है की जिनके पास ठेले पर हर रोज हम पानीपुड़ी,चाट,समोसे,मनचुरीयन,जलेबी, झालमुरी,एगरोल, बर्गर आदि खाया करते थें वो आज क्या कर रहें होंगें ??? क्या खा रहें होंगे???? अपने परिवार का भरण पोषन कैसे कर रहें होंगे????? क्या ओटो वाले भईया की आज सभी जरूरतें खत्म हो गयी होगी???
सवाल ये नहीं है की सभी तो मुश्कल में ही है परंतु सवाल यह है की सरकारें कोई ऐसी तरकीब क्यों नहीं अपनाती जिससे सबका भला हो । आज किरायेदारों , खासकर वैसे विद्यार्थीयों को जो अपना खर्च खुद निकालते थें, आज विवश है। एक तरफ मकान मालिकों को अपने बैंक एकाउंट भरने की चिंता सताती रह रही है तो दुसरी ओर उनके किरायेदार अपने रिश्तेदारों और दोस्तो से पैसे मांगकर शर्मिंदा होने को मजबूर हैं।
इन सभी समस्याओं के मद्देनजर क्या यह सरकार का दायित्व और नैतिक कर्तव्य नहीं बनता है की पुरे भारत में किराया माफ करवा दें। मकान मालिक भुखे तो नहीं मर जायेंगें ना!!!! जब देश में रातों-रात नोट बंदी लागू हो सकता है तो फिर ये काम क्यों नहीं????
सभी नागरीकों को बराबर का हक दिलाने के लिए सर्वजन न्यूनतम आय(universal basic income) क्यों नहीं लागू किया जा रहा है ये बातें विचारनीय है।
कुछ लोग तो अपने बचत saving से काम चला रहें है परंतु बहुत से लोग जिसका काम हर रोज कमाने और खाने का था वे लोग बेहद चिंतित है और उनकी चिंता जायज भी है । कुछ राज्य सरकारें मनरेगा में कुछ मजदुरों को काम देकर वाहवाही लूटने का असफल प्रयास कर रहें हैं तो कहीं कोई सरकार कोरोना पैकेज की घोषणा करके यह दिखाने का प्रयत्न कर रहें हैं की उन्होनें अपने जिम्मेदारी का निर्वहन कर लिया।
यहां एतराज हो सकता है की लोग सरकारों के प्रयासों को सराहने के बजाय उन्हें कोसते क्यों है???
तो इसका जवाब साफ है की क्या इन सीमित प्रयासों से हम कोरोना की मार झेल रहे अन्य लोगों के साथ न्याय कर रहें हैं?? बिल्कुल नहीं। तो फिर ये लोग प्रश्न तो पुछेंगें ही , जीवन का अधिकार जो संविधान के अपने सभी नागरीकों को दे रखा है (अनुच्छेद 21)।
क्या आज कोई जानने का प्रयास कर रहा है की जिनके पास ठेले पर हर रोज हम पानीपुड़ी,चाट,समोसे,मनचुरीयन,जलेबी, झालमुरी,एगरोल, बर्गर आदि खाया करते थें वो आज क्या कर रहें होंगें ??? क्या खा रहें होंगे???? अपने परिवार का भरण पोषन कैसे कर रहें होंगे????? क्या ओटो वाले भईया की आज सभी जरूरतें खत्म हो गयी होगी???
सवाल ये नहीं है की सभी तो मुश्कल में ही है परंतु सवाल यह है की सरकारें कोई ऐसी तरकीब क्यों नहीं अपनाती जिससे सबका भला हो । आज किरायेदारों , खासकर वैसे विद्यार्थीयों को जो अपना खर्च खुद निकालते थें, आज विवश है। एक तरफ मकान मालिकों को अपने बैंक एकाउंट भरने की चिंता सताती रह रही है तो दुसरी ओर उनके किरायेदार अपने रिश्तेदारों और दोस्तो से पैसे मांगकर शर्मिंदा होने को मजबूर हैं।
इन सभी समस्याओं के मद्देनजर क्या यह सरकार का दायित्व और नैतिक कर्तव्य नहीं बनता है की पुरे भारत में किराया माफ करवा दें। मकान मालिक भुखे तो नहीं मर जायेंगें ना!!!! जब देश में रातों-रात नोट बंदी लागू हो सकता है तो फिर ये काम क्यों नहीं????
सभी नागरीकों को बराबर का हक दिलाने के लिए सर्वजन न्यूनतम आय(universal basic income) क्यों नहीं लागू किया जा रहा है ये बातें विचारनीय है।